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मेरे सपनो के भारत पर निबंध
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सहकारी संघवाद क्या है, सहकारी संघवाद की परिभाषा ऐसे प्रश्न हमारे परीक्षा में रहते है।
इसीलिए सहकारी संघवाद क्या है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है चाहे वह परीक्षा के दृष्टिकोण से या राजनीतिक गतिविधियों के दृष्टिकोण से।
तो चलिए आज हम जानते हैं कि आखिर सहकारी संघवाद किसे कहते हैं और आप जान पाएंगे सहकारी संघवाद से हमें या हमारे सरकार को कौन-कौन सी सुविधाएं या कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
दरअसल सरकारी संघवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें केंद्रीय सरकार अधिक शक्तिशाली होती है, लेकिन राज्य सरकार भी कमजोर नहीं होती है।
इस व्यवस्था के अधीन केंद्रीय व राज्य सरकारें दोनों परस्पर पूरक तथा परस्पर निर्भर होती हैं।
ग्रेनविल ऑस्टिन ने " भारतीय संघवाद" को सहकारी संघवाद कहा है।
सहकारी संघवाद के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारें परस्पर सहयोग, समन्वय और सहकारिता के आधार पर काम करती हैं।
संघवाद की शुरुआत
1967 में भारतीय राजनीति में नाटकीय परिवर्तन आया और कांग्रेस का एकछत्र शासन समाप्त हुआ और आठ राज्यों में गैर कांग्रेसी मिश्रित सरकार का गठन हुआ। वहीं बंगाल, तमिलनाडु और पंजाब आदि राज्यों से स्वायत्तता की मांग उठने लगी लेकिन केंद्र पर उसका कोई गंभीर असर नहीं हुआ।
साझा सरकारें आपसी मतभेदों के कारण जल्द ही बिखर गई। नेहरू के बाद केंद्र में नेतृत्व का गंभीर संकट उत्पन्न हुआ जिसके कारण कांग्रेस दो टुकड़ों में विभाजित हो गई।
1967 से 1971 तक का काल कमजोर केंद्र कमजोर राज्यों वाले संघ का चित्र प्रस्तुत करता है, क्योंकि केंद्र में बंटी कांग्रेस सशक्त नेतृत्व की तलाश में थी।
केंद्र व राज्यों के बीच विभिन्न विवादों के बावजूद दोनों ही अपनी-अपनी कमजोरियों और मजबूरी के कारण एक-दूसरे से टक्कर लेने की स्थिति में नहीं थी। अतः इस काल को कुछ लोगों ने सहयोगी संघवाद या सहकारी संघवाद की संज्ञा दे दी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीति में केंद्र और राज्य अपनी-अपनी कमजोरियों को पहचान कर भी तथा अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए परस्पर सहयोग करके देश की उन्नति व विकास की ओर उन्मुख होते हैं।
यह तो सहकारी संघवाद की अवधारणा रही जिसमें हमने पाया कि भारत विविधताओं से भरा देश है। यहां हर क्षेत्र हर कोना, एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न है फिर वह चाहे बोली को लेकर हो या सभ्यता या संस्कृति को लेकर उत्तर भारत की विशेषताएं कुछ और हैं और दक्षिणी भारत की कुछ और।
ये भिन्नताएं भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर अलग-अलग हो सकती है पर फिर भी सब में एकता का भाव समान है। इसलिए यह एक संघ है।
संविधान के प्रथम अनुच्छेद में यही लिखा है "भारत राज्यों का एक संघ होगा।"
यहां की संस्कृति की तुलना गुलदस्ते से की गई है। ऐसा गुलदस्ता जो अपने अंदर विभिन्न फूलों को एक साथ बांधे हुए है। यहां तरह-तरह के फूल अपनी विशेषता लिए अर्थात् अपनी-अपनी खुशबू लिए अपनी पहचान लिए मुस्कुराते हैं।
वहीं अमेरिका के संघ की तुलना 'कटोरे में रखे हलवे' से की गई है। जहां चीनी, घी, दूध, सूजी इत्यादि को एक साथ पीसकर मिक्स कर लिया गया है। सब अपना मूल तत्व खोकर अर्थात् खुद की पहचान खोकर एक ही हो गए हैं, एक ही स्वाद आता है।
जब तक आप चखेंगे नहीं तब तक पहचान भी नहीं पाएंगे आखिर कटोरे में क्या-क्या है, जबकि भारत के गुलदस्ते में रखे फूलों को आप अलग-अलग देख भी सकते हैं और उसकी सुगंध को भी महसूस कर सकते हैं।
भारत का संघवाद अमेरिका के संघवाद से अलग है।
भारत में संघवाद होने के साथ एकात्मक शासन व्यवस्था भी है। संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति से समृद्ध भारतीय भू-भाग एक महाद्वीप की तरह विशाल और अनेक विविधताओं से भरा है।
यहां सदियों से अनेक भाषाओं को बोलने बाले, विभिन्न धर्मों को मानने वाले तथा अलग-अलग नृजातीय समूह के लोग परस्पर सौहार्द्र एवं सहिष्णुता के साथ निवास करते हैं। इन विविधताओं से ओतप्रोत होते हुए भी भारतीय धरा के निवासियों में कई अद्भुत समानताएं पाई जाती हैं।
साझी जमीन के साथ-साथ इस धरा के लोगों का एक साझा इतिहास एवं एक समृद्ध साझी विरासत है, साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस भू-भाग के लोग संघीय ढांचे पर टिकी प्रजातांत्रिक राजनीति के द्वारा एक सूत्र में बंधे हुए हैं।
मध्यकालीन राजतंत्रीय व्यवस्था और 200 वर्षों के औपनिवेशिक शासन के उपरांत जब देश स्वतंत्र हुआ और देश को एक समुचित एवं सुसंगठित ढांचे में पिरोने के लिए संविधान सभा बैठी तो उसके सम्मुख यह मुख्य चुनौती थी कि इतनी विविधताओं से परिपूर्ण देश को किस प्रकार के शासन-प्रशासन की एक सर्वस्वीकृत माला में पिरोया जाए?
इस बड़ी चुनौती के समाधान स्वरूप संविधान के माध्यम से भारत में संघवाद की स्थापना की गई। पर इतिहास से सबक लेकर देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए परिस्थितियों में एकात्मक शासन व्यवस्था लागू हो सकती है।
संघवाद क्या है ?
संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है, जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक व्यवस्था प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केंद्रीय स्तर की।
हालांकि भारतीय शासन के रूप में इसका तीसरा स्तर भी स्थापित हो चुका है। संबबाद के उन्नत रूप ' सहकारी संघवाद' से आशय है- देश के निवासियों को कल्याणकारी शासन प्रदान करने हेतु केंद्र व राज्यों द्वारा आपस में सहयोग स्थापित करना।
इसी का एक अन्य रूप 'प्रतिस्पर्धी संघवाद' है जिसका आशय लोगों को कल्याणकारी शासन देने के लिए राज्यों को आपस में प्रतिस्पर्धा कराना है।
भारत में संघवाद के दोनों रूप (सहकारी और प्रतिस्पर्धी) 991 ई. में उदारवाद, निजीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया अपनाने के बाद दिखाई देने लगे और वर्तमान में भारतीय संघीय संरचना का प्रत्येक घटक लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न है।
केंद्र व राज्य सरकारों के स्पष्ट कार्य क्षेत्र हैं तथा सूचियों के द्वारा उनके बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन कर दिया गया है।
साथ ही यदि दोनों के मध्य किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होता है तो ऐसा प्रावधान किया गया है कि उच्च न्यायपालिका संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप विवाद की सुनवाई करेगी और निष्पक्ष फैसला करेगी।
भारत में संघवाद
भारतीय संघवादी विश्लेषण पर नजर डालें तो यह पता चलता है कि अब यह तथ्य काल्पनिक ही नजर आता है। यथार्थ रूप में तो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तनाव ही दिखता है। यहां तक अब राज्य को अधिक शक्ति प्रदान करने की मांग उठ रही है।
राज्य के लोगों की जरूरतों को पूरा न करने का आरोप राज्य केंद्र पर मढ़ देता है। वहीं केंद्र भी अपनी शक्ति का सही प्रयोग नहीं करता।
शायद यह हो सकता है कि संविधान के आरंभिक समय में केंद्र और राज्य आदर्शवादी राज्य मनमाने ढंग से राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने आर्थिक संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं पर केंद्र अपनी आपातकालीन शक्तियां प्रयोग करने से कतराता रहता है। राज्य अपने वर्तमान आर्थिक संसाधनों के द्वारा प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करके जनता को बहुत संतुष्ट कर सकते हैं।
सहकारी संघवाद का यह रूप बिखर गया और एक मिथक ही बन कर रह गया। जबकि यथार्थ रूप में यह प्रतिस्पर्धी संघवाद ही दिखाई देता है। समय की आवश्यकता है कि राज्य एवं केंद्र सहकारी संघवाद की ओर प्रवृत्त हों।
स्वप्न देखना एक जागृत-चेतन प्रवृत्ति है। अस्वस्थ, हीन और दुर्बल हृदय व्यक्ति बहुरंगी सपने नहीं देख सकते । संकल्पशील और साहसी लोग सदैव अपने संपनों से काल देवता का श्रृंगार करते आए हैं ।
उन्हें अपने सपनों से मोह हुआ करता है। उन्होंने अपने सपनों को अपने रक्त कणों से सींचा एवं उनको साकार भी किया है। इस देश के एक वयोवृद्ध संत ने भी इस महान देश के लिए सपना देखा था ।
इस सपने को साकार करने के लिए उसने अपने जीवन का सर्वस्व होम कर दिया। वह सपना लाखों-करोड़ों का सपना बन गया ।
अपने इस विराट देश के लिए मेरा भी एक सपना है, जिसको पूरा करने के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ। साथ ही लाखों देशवासियों का भी आह्वान करता हूँ कि वे अपनी इस मातृभूमि के लिए स्वयं भी बहुरंगी सपने देखें ।
मेरी यही कामना है कि-
मेरे भारत देश में न कोई भूखा हो, न रोगी हो, न नग्न हो, न गरीब हो, और न शिक्षा से विहीन हो। हे प्रभु! मेरा भारत देश की उन्नति हो ।
अपने सपने को साकार करने के लिए मुझे अपने देश के सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक और राजनीतिक सभी पहलुओं को देखना होगा।
इसके सांस्कृतिक भविष्य के संबंध में मेरा सपना बड़ा ही मनोरम और आशावर्धक है। यों तो सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत ने नित ही सदैव नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं तथा अपनी सांस्कृतिक विरासत पर भारत को सदा से ही अभिमाना रहा है।
परंतु जिस सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत का सपना मैं देख रहा हूँ वह और भी भव्य और चमत्कारपूर्ण हैं। मेरे सपने के अनुसार प्रत्येक नगर और उपनगर में बड़े-बड़े सांस्कृतिक -केन्द्र स्थापित हो चुके होंगे जहाँ विविध प्रकार की संस्कृतिक गतिविधियाँ संपन्न होंगी।
राष्ट्रीय,सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ विविध अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों का भी आयोजन होगा, जिससे एकता और सद्भाव में आशातीत अभिवृद्धि होगी।
आर्थिक दृष्टि से भारत आज भी विषम दौर से गुजर रहा है। यद्यपि अपने आर्थिक निर्माण की दशा में इसने कई मंजिलों को पार कर लिया है फिर भी यहाँ के निवासियों को भरपेट भोजन नहीं मिलता ।
यहाँ के किसान जो आज अपना खून-पसीना एक करके पूंजीपतियों और सामंतों के लिए अन्न पैदा करते हैं वे नवीन आर्थिक परिवर्तनों से समृद्ध हो उठेंगे। गाँव-गाँव में वनरोपन के नवीन साधनों में अभिवृद्धि होगी।
गाँव-गाँव में विद्युत का पक्की सड़कों का जाल-सा बिछ जाएगा। पानी की निकासी के लिए नालियों का भी उचित प्रबंध कर लिया जाएगा। हर घर में दूरदर्शन, दूरभाष और घूमने के लिए कार होगी।
जहाँ तक नगरों का संबंध है, उनमें भारी औद्योगिक विकास हो जाएगा। मजदूरों की दशा सुधर जाएगी। मिलों में मजदूरों की भागीदारी होगी। उत्पादन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण हो जाएगा। कहने का तात्पर्य है कि आर्थिक असमानता दूर होगी, जिससे भारत संसार के अतिसंपन्न देशों की श्रेणी में जा खड़ा होगा ।
सभ्यता के आदि काल से भारत ने विश्व को धर्म की दृष्टि दी है।
जयशंकर प्रसादजी ने कहा है-विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम|
किंतु समय के क्रूर आघातों ने, इतिहास की निर्मम करवटों ने और अपराधीनता की बेड़ियों ने धार्मिक नेतृत्व को हमसे सदा के लिए छीनने का असफल प्रयास किया है।
सभी दिन समान नहीं होते। भारत ने शांति, व्यापार और ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विश्व के अनेक प्रगतिशील देशों से सहयोग करना आरंभ कर दिया है।
अब वह दिन दूर नहीं है जब धार्मिक क्षेत्र में भी भारत फिर से विश्व का नेतृत्व करेगा। मैं समझता हूँ कि धर्म निरपेक्ष इस देश में धर्म की परिकल्पना और धारणा में अंतर आ जाएगा। वह केवल मात्र एक व्यक्तिगत साधना न बनकर व्यक्ति में सामाजिक दायित्व, राष्ट्रीय ,भाईचारा, ईमानदारी और नैतिक गुणों की अभिवृद्धि भी करेगा ।
आज भारत का राजनीतिक क्षितिज नाना प्रकार के विरोधी रंगों से मटमैला-सा हो उठा है। मैं समझता हूँ कि मेरा यह अत्यंत मधुर सपना, हमारे अपने प्रयत्नों से पूर्ण होगा। और तब सच्चे अर्थों में प्रजा का कल्याण होगा।
मेरा यह मधुर सपना केवल संभावनाओं पर ही आधारित नहीं है वरन् देश का संपूर्ण मानस जिस ढंग से क्रियाशील है, उससे मुझे अपना सपना शीघ्र ही साकार होने वाला प्रतीत हो रहा है।
मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि मेरा सपना पूरा होते ही भारत विश्व का सर्वशक्तिमान देश होगा। ऐसी भविष्यवाणियाँ सुनने को भी मिल रही हैं। जिस प्रकार से हम अपने विकास की ओर अग्रसर हैं उससे मेरे सपने में और भी चार चाँद लग जाएँगे ।
सहकारी संघवाद क्या है, सहकारी संघवाद की परिभाषा ऐसे प्रश्न हमारे परीक्षा में रहते है।
इसीलिए सहकारी संघवाद क्या है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है चाहे वह परीक्षा के दृष्टिकोण से या राजनीतिक गतिविधियों के दृष्टिकोण से।
तो चलिए आज हम जानते हैं कि आखिर सहकारी संघवाद किसे कहते हैं और आप जान पाएंगे सहकारी संघवाद से हमें या हमारे सरकार को कौन-कौन सी सुविधाएं या कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
दरअसल सरकारी संघवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें केंद्रीय सरकार अधिक शक्तिशाली होती है, लेकिन राज्य सरकार भी कमजोर नहीं होती है।
इस व्यवस्था के अधीन केंद्रीय व राज्य सरकारें दोनों परस्पर पूरक तथा परस्पर निर्भर होती हैं।
ग्रेनविल ऑस्टिन ने " भारतीय संघवाद" को सहकारी संघवाद कहा है।
सहकारी संघवाद के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारें परस्पर सहयोग, समन्वय और सहकारिता के आधार पर काम करती हैं।
संघवाद की शुरुआत
1967 में भारतीय राजनीति में नाटकीय परिवर्तन आया और कांग्रेस का एकछत्र शासन समाप्त हुआ और आठ राज्यों में गैर कांग्रेसी मिश्रित सरकार का गठन हुआ। वहीं बंगाल, तमिलनाडु और पंजाब आदि राज्यों से स्वायत्तता की मांग उठने लगी लेकिन केंद्र पर उसका कोई गंभीर असर नहीं हुआ।
साझा सरकारें आपसी मतभेदों के कारण जल्द ही बिखर गई। नेहरू के बाद केंद्र में नेतृत्व का गंभीर संकट उत्पन्न हुआ जिसके कारण कांग्रेस दो टुकड़ों में विभाजित हो गई।
1967 से 1971 तक का काल कमजोर केंद्र कमजोर राज्यों वाले संघ का चित्र प्रस्तुत करता है, क्योंकि केंद्र में बंटी कांग्रेस सशक्त नेतृत्व की तलाश में थी।
केंद्र व राज्यों के बीच विभिन्न विवादों के बावजूद दोनों ही अपनी-अपनी कमजोरियों और मजबूरी के कारण एक-दूसरे से टक्कर लेने की स्थिति में नहीं थी। अतः इस काल को कुछ लोगों ने सहयोगी संघवाद या सहकारी संघवाद की संज्ञा दे दी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीति में केंद्र और राज्य अपनी-अपनी कमजोरियों को पहचान कर भी तथा अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए परस्पर सहयोग करके देश की उन्नति व विकास की ओर उन्मुख होते हैं।
यह तो सहकारी संघवाद की अवधारणा रही जिसमें हमने पाया कि भारत विविधताओं से भरा देश है। यहां हर क्षेत्र हर कोना, एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न है फिर वह चाहे बोली को लेकर हो या सभ्यता या संस्कृति को लेकर उत्तर भारत की विशेषताएं कुछ और हैं और दक्षिणी भारत की कुछ और।
ये भिन्नताएं भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर अलग-अलग हो सकती है पर फिर भी सब में एकता का भाव समान है। इसलिए यह एक संघ है।
संविधान के प्रथम अनुच्छेद में यही लिखा है "भारत राज्यों का एक संघ होगा।"
यहां की संस्कृति की तुलना गुलदस्ते से की गई है। ऐसा गुलदस्ता जो अपने अंदर विभिन्न फूलों को एक साथ बांधे हुए है। यहां तरह-तरह के फूल अपनी विशेषता लिए अर्थात् अपनी-अपनी खुशबू लिए अपनी पहचान लिए मुस्कुराते हैं।
वहीं अमेरिका के संघ की तुलना 'कटोरे में रखे हलवे' से की गई है। जहां चीनी, घी, दूध, सूजी इत्यादि को एक साथ पीसकर मिक्स कर लिया गया है। सब अपना मूल तत्व खोकर अर्थात् खुद की पहचान खोकर एक ही हो गए हैं, एक ही स्वाद आता है।
जब तक आप चखेंगे नहीं तब तक पहचान भी नहीं पाएंगे आखिर कटोरे में क्या-क्या है, जबकि भारत के गुलदस्ते में रखे फूलों को आप अलग-अलग देख भी सकते हैं और उसकी सुगंध को भी महसूस कर सकते हैं।
भारत का संघवाद अमेरिका के संघवाद से अलग है।
भारत में संघवाद होने के साथ एकात्मक शासन व्यवस्था भी है। संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति से समृद्ध भारतीय भू-भाग एक महाद्वीप की तरह विशाल और अनेक विविधताओं से भरा है।
यहां सदियों से अनेक भाषाओं को बोलने बाले, विभिन्न धर्मों को मानने वाले तथा अलग-अलग नृजातीय समूह के लोग परस्पर सौहार्द्र एवं सहिष्णुता के साथ निवास करते हैं। इन विविधताओं से ओतप्रोत होते हुए भी भारतीय धरा के निवासियों में कई अद्भुत समानताएं पाई जाती हैं।
साझी जमीन के साथ-साथ इस धरा के लोगों का एक साझा इतिहास एवं एक समृद्ध साझी विरासत है, साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस भू-भाग के लोग संघीय ढांचे पर टिकी प्रजातांत्रिक राजनीति के द्वारा एक सूत्र में बंधे हुए हैं।
मध्यकालीन राजतंत्रीय व्यवस्था और 200 वर्षों के औपनिवेशिक शासन के उपरांत जब देश स्वतंत्र हुआ और देश को एक समुचित एवं सुसंगठित ढांचे में पिरोने के लिए संविधान सभा बैठी तो उसके सम्मुख यह मुख्य चुनौती थी कि इतनी विविधताओं से परिपूर्ण देश को किस प्रकार के शासन-प्रशासन की एक सर्वस्वीकृत माला में पिरोया जाए?
इस बड़ी चुनौती के समाधान स्वरूप संविधान के माध्यम से भारत में संघवाद की स्थापना की गई। पर इतिहास से सबक लेकर देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए परिस्थितियों में एकात्मक शासन व्यवस्था लागू हो सकती है।
संघवाद क्या है ?
संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है, जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक व्यवस्था प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केंद्रीय स्तर की।
हालांकि भारतीय शासन के रूप में इसका तीसरा स्तर भी स्थापित हो चुका है। संबबाद के उन्नत रूप ' सहकारी संघवाद' से आशय है- देश के निवासियों को कल्याणकारी शासन प्रदान करने हेतु केंद्र व राज्यों द्वारा आपस में सहयोग स्थापित करना।
इसी का एक अन्य रूप 'प्रतिस्पर्धी संघवाद' है जिसका आशय लोगों को कल्याणकारी शासन देने के लिए राज्यों को आपस में प्रतिस्पर्धा कराना है।
भारत में संघवाद के दोनों रूप (सहकारी और प्रतिस्पर्धी) 991 ई. में उदारवाद, निजीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया अपनाने के बाद दिखाई देने लगे और वर्तमान में भारतीय संघीय संरचना का प्रत्येक घटक लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न है।
केंद्र व राज्य सरकारों के स्पष्ट कार्य क्षेत्र हैं तथा सूचियों के द्वारा उनके बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन कर दिया गया है।
साथ ही यदि दोनों के मध्य किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होता है तो ऐसा प्रावधान किया गया है कि उच्च न्यायपालिका संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप विवाद की सुनवाई करेगी और निष्पक्ष फैसला करेगी।
भारत में संघवाद
भारतीय संघवादी विश्लेषण पर नजर डालें तो यह पता चलता है कि अब यह तथ्य काल्पनिक ही नजर आता है। यथार्थ रूप में तो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तनाव ही दिखता है। यहां तक अब राज्य को अधिक शक्ति प्रदान करने की मांग उठ रही है।
राज्य के लोगों की जरूरतों को पूरा न करने का आरोप राज्य केंद्र पर मढ़ देता है। वहीं केंद्र भी अपनी शक्ति का सही प्रयोग नहीं करता।
शायद यह हो सकता है कि संविधान के आरंभिक समय में केंद्र और राज्य आदर्शवादी राज्य मनमाने ढंग से राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने आर्थिक संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं पर केंद्र अपनी आपातकालीन शक्तियां प्रयोग करने से कतराता रहता है। राज्य अपने वर्तमान आर्थिक संसाधनों के द्वारा प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करके जनता को बहुत संतुष्ट कर सकते हैं।
सहकारी संघवाद का यह रूप बिखर गया और एक मिथक ही बन कर रह गया। जबकि यथार्थ रूप में यह प्रतिस्पर्धी संघवाद ही दिखाई देता है। समय की आवश्यकता है कि राज्य एवं केंद्र सहकारी संघवाद की ओर प्रवृत्त हों।
स्वप्न देखना एक जागृत-चेतन प्रवृत्ति है। अस्वस्थ, हीन और दुर्बल हृदय व्यक्ति बहुरंगी सपने नहीं देख सकते । संकल्पशील और साहसी लोग सदैव अपने संपनों से काल देवता का श्रृंगार करते आए हैं ।
उन्हें अपने सपनों से मोह हुआ करता है। उन्होंने अपने सपनों को अपने रक्त कणों से सींचा एवं उनको साकार भी किया है। इस देश के एक वयोवृद्ध संत ने भी इस महान देश के लिए सपना देखा था ।
इस सपने को साकार करने के लिए उसने अपने जीवन का सर्वस्व होम कर दिया। वह सपना लाखों-करोड़ों का सपना बन गया ।
अपने इस विराट देश के लिए मेरा भी एक सपना है, जिसको पूरा करने के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ। साथ ही लाखों देशवासियों का भी आह्वान करता हूँ कि वे अपनी इस मातृभूमि के लिए स्वयं भी बहुरंगी सपने देखें ।
मेरी यही कामना है कि-
मेरे भारत देश में न कोई भूखा हो, न रोगी हो, न नग्न हो, न गरीब हो, और न शिक्षा से विहीन हो। हे प्रभु! मेरा भारत देश की उन्नति हो ।
अपने सपने को साकार करने के लिए मुझे अपने देश के सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक और राजनीतिक सभी पहलुओं को देखना होगा।
इसके सांस्कृतिक भविष्य के संबंध में मेरा सपना बड़ा ही मनोरम और आशावर्धक है। यों तो सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत ने नित ही सदैव नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं तथा अपनी सांस्कृतिक विरासत पर भारत को सदा से ही अभिमाना रहा है।
परंतु जिस सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत का सपना मैं देख रहा हूँ वह और भी भव्य और चमत्कारपूर्ण हैं। मेरे सपने के अनुसार प्रत्येक नगर और उपनगर में बड़े-बड़े सांस्कृतिक -केन्द्र स्थापित हो चुके होंगे जहाँ विविध प्रकार की संस्कृतिक गतिविधियाँ संपन्न होंगी।
राष्ट्रीय,सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ विविध अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों का भी आयोजन होगा, जिससे एकता और सद्भाव में आशातीत अभिवृद्धि होगी।
आर्थिक दृष्टि से भारत आज भी विषम दौर से गुजर रहा है। यद्यपि अपने आर्थिक निर्माण की दशा में इसने कई मंजिलों को पार कर लिया है फिर भी यहाँ के निवासियों को भरपेट भोजन नहीं मिलता ।
यहाँ के किसान जो आज अपना खून-पसीना एक करके पूंजीपतियों और सामंतों के लिए अन्न पैदा करते हैं वे नवीन आर्थिक परिवर्तनों से समृद्ध हो उठेंगे। गाँव-गाँव में वनरोपन के नवीन साधनों में अभिवृद्धि होगी।
गाँव-गाँव में विद्युत का पक्की सड़कों का जाल-सा बिछ जाएगा। पानी की निकासी के लिए नालियों का भी उचित प्रबंध कर लिया जाएगा। हर घर में दूरदर्शन, दूरभाष और घूमने के लिए कार होगी।
जहाँ तक नगरों का संबंध है, उनमें भारी औद्योगिक विकास हो जाएगा। मजदूरों की दशा सुधर जाएगी। मिलों में मजदूरों की भागीदारी होगी। उत्पादन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण हो जाएगा। कहने का तात्पर्य है कि आर्थिक असमानता दूर होगी, जिससे भारत संसार के अतिसंपन्न देशों की श्रेणी में जा खड़ा होगा ।
सभ्यता के आदि काल से भारत ने विश्व को धर्म की दृष्टि दी है।
जयशंकर प्रसादजी ने कहा है-विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम|
किंतु समय के क्रूर आघातों ने, इतिहास की निर्मम करवटों ने और अपराधीनता की बेड़ियों ने धार्मिक नेतृत्व को हमसे सदा के लिए छीनने का असफल प्रयास किया है।
सभी दिन समान नहीं होते। भारत ने शांति, व्यापार और ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विश्व के अनेक प्रगतिशील देशों से सहयोग करना आरंभ कर दिया है।
अब वह दिन दूर नहीं है जब धार्मिक क्षेत्र में भी भारत फिर से विश्व का नेतृत्व करेगा। मैं समझता हूँ कि धर्म निरपेक्ष इस देश में धर्म की परिकल्पना और धारणा में अंतर आ जाएगा। वह केवल मात्र एक व्यक्तिगत साधना न बनकर व्यक्ति में सामाजिक दायित्व, राष्ट्रीय ,भाईचारा, ईमानदारी और नैतिक गुणों की अभिवृद्धि भी करेगा ।
आज भारत का राजनीतिक क्षितिज नाना प्रकार के विरोधी रंगों से मटमैला-सा हो उठा है। मैं समझता हूँ कि मेरा यह अत्यंत मधुर सपना, हमारे अपने प्रयत्नों से पूर्ण होगा। और तब सच्चे अर्थों में प्रजा का कल्याण होगा।
मेरा यह मधुर सपना केवल संभावनाओं पर ही आधारित नहीं है वरन् देश का संपूर्ण मानस जिस ढंग से क्रियाशील है, उससे मुझे अपना सपना शीघ्र ही साकार होने वाला प्रतीत हो रहा है।
मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि मेरा सपना पूरा होते ही भारत विश्व का सर्वशक्तिमान देश होगा। ऐसी भविष्यवाणियाँ सुनने को भी मिल रही हैं। जिस प्रकार से हम अपने विकास की ओर अग्रसर हैं उससे मेरे सपने में और भी चार चाँद लग जाएँगे ।
सहकारी संघवाद क्या है, सहकारी संघवाद की परिभाषा ऐसे प्रश्न हमारे परीक्षा में रहते है।
इसीलिए सहकारी संघवाद क्या है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है चाहे वह परीक्षा के दृष्टिकोण से या राजनीतिक गतिविधियों के दृष्टिकोण से।
तो चलिए आज हम जानते हैं कि आखिर सहकारी संघवाद किसे कहते हैं और आप जान पाएंगे सहकारी संघवाद से हमें या हमारे सरकार को कौन-कौन सी सुविधाएं या कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
दरअसल सरकारी संघवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें केंद्रीय सरकार अधिक शक्तिशाली होती है, लेकिन राज्य सरकार भी कमजोर नहीं होती है।
इस व्यवस्था के अधीन केंद्रीय व राज्य सरकारें दोनों परस्पर पूरक तथा परस्पर निर्भर होती हैं।
ग्रेनविल ऑस्टिन ने " भारतीय संघवाद" को सहकारी संघवाद कहा है।
सहकारी संघवाद के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारें परस्पर सहयोग, समन्वय और सहकारिता के आधार पर काम करती हैं।
संघवाद की शुरुआत
1967 में भारतीय राजनीति में नाटकीय परिवर्तन आया और कांग्रेस का एकछत्र शासन समाप्त हुआ और आठ राज्यों में गैर कांग्रेसी मिश्रित सरकार का गठन हुआ। वहीं बंगाल, तमिलनाडु और पंजाब आदि राज्यों से स्वायत्तता की मांग उठने लगी लेकिन केंद्र पर उसका कोई गंभीर असर नहीं हुआ।
साझा सरकारें आपसी मतभेदों के कारण जल्द ही बिखर गई। नेहरू के बाद केंद्र में नेतृत्व का गंभीर संकट उत्पन्न हुआ जिसके कारण कांग्रेस दो टुकड़ों में विभाजित हो गई।
1967 से 1971 तक का काल कमजोर केंद्र कमजोर राज्यों वाले संघ का चित्र प्रस्तुत करता है, क्योंकि केंद्र में बंटी कांग्रेस सशक्त नेतृत्व की तलाश में थी।
केंद्र व राज्यों के बीच विभिन्न विवादों के बावजूद दोनों ही अपनी-अपनी कमजोरियों और मजबूरी के कारण एक-दूसरे से टक्कर लेने की स्थिति में नहीं थी। अतः इस काल को कुछ लोगों ने सहयोगी संघवाद या सहकारी संघवाद की संज्ञा दे दी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीति में केंद्र और राज्य अपनी-अपनी कमजोरियों को पहचान कर भी तथा अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए परस्पर सहयोग करके देश की उन्नति व विकास की ओर उन्मुख होते हैं।
यह तो सहकारी संघवाद की अवधारणा रही जिसमें हमने पाया कि भारत विविधताओं से भरा देश है। यहां हर क्षेत्र हर कोना, एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न है फिर वह चाहे बोली को लेकर हो या सभ्यता या संस्कृति को लेकर उत्तर भारत की विशेषताएं कुछ और हैं और दक्षिणी भारत की कुछ और।
ये भिन्नताएं भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर अलग-अलग हो सकती है पर फिर भी सब में एकता का भाव समान है। इसलिए यह एक संघ है।
संविधान के प्रथम अनुच्छेद में यही लिखा है "भारत राज्यों का एक संघ होगा।"
यहां की संस्कृति की तुलना गुलदस्ते से की गई है। ऐसा गुलदस्ता जो अपने अंदर विभिन्न फूलों को एक साथ बांधे हुए है। यहां तरह-तरह के फूल अपनी विशेषता लिए अर्थात् अपनी-अपनी खुशबू लिए अपनी पहचान लिए मुस्कुराते हैं।
वहीं अमेरिका के संघ की तुलना 'कटोरे में रखे हलवे' से की गई है। जहां चीनी, घी, दूध, सूजी इत्यादि को एक साथ पीसकर मिक्स कर लिया गया है। सब अपना मूल तत्व खोकर अर्थात् खुद की पहचान खोकर एक ही हो गए हैं, एक ही स्वाद आता है।
जब तक आप चखेंगे नहीं तब तक पहचान भी नहीं पाएंगे आखिर कटोरे में क्या-क्या है, जबकि भारत के गुलदस्ते में रखे फूलों को आप अलग-अलग देख भी सकते हैं और उसकी सुगंध को भी महसूस कर सकते हैं।
भारत का संघवाद अमेरिका के संघवाद से अलग है।
भारत में संघवाद होने के साथ एकात्मक शासन व्यवस्था भी है। संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति से समृद्ध भारतीय भू-भाग एक महाद्वीप की तरह विशाल और अनेक विविधताओं से भरा है।
यहां सदियों से अनेक भाषाओं को बोलने बाले, विभिन्न धर्मों को मानने वाले तथा अलग-अलग नृजातीय समूह के लोग परस्पर सौहार्द्र एवं सहिष्णुता के साथ निवास करते हैं। इन विविधताओं से ओतप्रोत होते हुए भी भारतीय धरा के निवासियों में कई अद्भुत समानताएं पाई जाती हैं।
साझी जमीन के साथ-साथ इस धरा के लोगों का एक साझा इतिहास एवं एक समृद्ध साझी विरासत है, साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस भू-भाग के लोग संघीय ढांचे पर टिकी प्रजातांत्रिक राजनीति के द्वारा एक सूत्र में बंधे हुए हैं।
मध्यकालीन राजतंत्रीय व्यवस्था और 200 वर्षों के औपनिवेशिक शासन के उपरांत जब देश स्वतंत्र हुआ और देश को एक समुचित एवं सुसंगठित ढांचे में पिरोने के लिए संविधान सभा बैठी तो उसके सम्मुख यह मुख्य चुनौती थी कि इतनी विविधताओं से परिपूर्ण देश को किस प्रकार के शासन-प्रशासन की एक सर्वस्वीकृत माला में पिरोया जाए?
इस बड़ी चुनौती के समाधान स्वरूप संविधान के माध्यम से भारत में संघवाद की स्थापना की गई। पर इतिहास से सबक लेकर देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए परिस्थितियों में एकात्मक शासन व्यवस्था लागू हो सकती है।
संघवाद क्या है ?
संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है, जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक व्यवस्था प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केंद्रीय स्तर की।
हालांकि भारतीय शासन के रूप में इसका तीसरा स्तर भी स्थापित हो चुका है। संबबाद के उन्नत रूप ' सहकारी संघवाद' से आशय है- देश के निवासियों को कल्याणकारी शासन प्रदान करने हेतु केंद्र व राज्यों द्वारा आपस में सहयोग स्थापित करना।
इसी का एक अन्य रूप 'प्रतिस्पर्धी संघवाद' है जिसका आशय लोगों को कल्याणकारी शासन देने के लिए राज्यों को आपस में प्रतिस्पर्धा कराना है।
भारत में संघवाद के दोनों रूप (सहकारी और प्रतिस्पर्धी) 991 ई. में उदारवाद, निजीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया अपनाने के बाद दिखाई देने लगे और वर्तमान में भारतीय संघीय संरचना का प्रत्येक घटक लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न है।
केंद्र व राज्य सरकारों के स्पष्ट कार्य क्षेत्र हैं तथा सूचियों के द्वारा उनके बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन कर दिया गया है।
साथ ही यदि दोनों के मध्य किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होता है तो ऐसा प्रावधान किया गया है कि उच्च न्यायपालिका संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप विवाद की सुनवाई करेगी और निष्पक्ष फैसला करेगी।
भारत में संघवाद
भारतीय संघवादी विश्लेषण पर नजर डालें तो यह पता चलता है कि अब यह तथ्य काल्पनिक ही नजर आता है। यथार्थ रूप में तो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तनाव ही दिखता है। यहां तक अब राज्य को अधिक शक्ति प्रदान करने की मांग उठ रही है।
राज्य के लोगों की जरूरतों को पूरा न करने का आरोप राज्य केंद्र पर मढ़ देता है। वहीं केंद्र भी अपनी शक्ति का सही प्रयोग नहीं करता।
शायद यह हो सकता है कि संविधान के आरंभिक समय में केंद्र और राज्य आदर्शवादी राज्य मनमाने ढंग से राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने आर्थिक संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं पर केंद्र अपनी आपातकालीन शक्तियां प्रयोग करने से कतराता रहता है। राज्य अपने वर्तमान आर्थिक संसाधनों के द्वारा प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करके जनता को बहुत संतुष्ट कर सकते हैं।
सहकारी संघवाद का यह रूप बिखर गया और एक मिथक ही बन कर रह गया। जबकि यथार्थ रूप में यह प्रतिस्पर्धी संघवाद ही दिखाई देता है। समय की आवश्यकता है कि राज्य एवं केंद्र सहकारी संघवाद की ओर प्रवृत्त हों।
स्वप्न देखना एक जागृत-चेतन प्रवृत्ति है। अस्वस्थ, हीन और दुर्बल हृदय व्यक्ति बहुरंगी सपने नहीं देख सकते । संकल्पशील और साहसी लोग सदैव अपने संपनों से काल देवता का श्रृंगार करते आए हैं ।
उन्हें अपने सपनों से मोह हुआ करता है। उन्होंने अपने सपनों को अपने रक्त कणों से सींचा एवं उनको साकार भी किया है। इस देश के एक वयोवृद्ध संत ने भी इस महान देश के लिए सपना देखा था ।
इस सपने को साकार करने के लिए उसने अपने जीवन का सर्वस्व होम कर दिया। वह सपना लाखों-करोड़ों का सपना बन गया ।
अपने इस विराट देश के लिए मेरा भी एक सपना है, जिसको पूरा करने के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ। साथ ही लाखों देशवासियों का भी आह्वान करता हूँ कि वे अपनी इस मातृभूमि के लिए स्वयं भी बहुरंगी सपने देखें ।
मेरी यही कामना है कि-
मेरे भारत देश में न कोई भूखा हो, न रोगी हो, न नग्न हो, न गरीब हो, और न शिक्षा से विहीन हो। हे प्रभु! मेरा भारत देश की उन्नति हो ।
अपने सपने को साकार करने के लिए मुझे अपने देश के सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक और राजनीतिक सभी पहलुओं को देखना होगा।
इसके सांस्कृतिक भविष्य के संबंध में मेरा सपना बड़ा ही मनोरम और आशावर्धक है। यों तो सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत ने नित ही सदैव नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं तथा अपनी सांस्कृतिक विरासत पर भारत को सदा से ही अभिमाना रहा है।
परंतु जिस सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत का सपना मैं देख रहा हूँ वह और भी भव्य और चमत्कारपूर्ण हैं। मेरे सपने के अनुसार प्रत्येक नगर और उपनगर में बड़े-बड़े सांस्कृतिक -केन्द्र स्थापित हो चुके होंगे जहाँ विविध प्रकार की संस्कृतिक गतिविधियाँ संपन्न होंगी।
राष्ट्रीय,सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ विविध अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों का भी आयोजन होगा, जिससे एकता और सद्भाव में आशातीत अभिवृद्धि होगी।
आर्थिक दृष्टि से भारत आज भी विषम दौर से गुजर रहा है। यद्यपि अपने आर्थिक निर्माण की दशा में इसने कई मंजिलों को पार कर लिया है फिर भी यहाँ के निवासियों को भरपेट भोजन नहीं मिलता ।
यहाँ के किसान जो आज अपना खून-पसीना एक करके पूंजीपतियों और सामंतों के लिए अन्न पैदा करते हैं वे नवीन आर्थिक परिवर्तनों से समृद्ध हो उठेंगे। गाँव-गाँव में वनरोपन के नवीन साधनों में अभिवृद्धि होगी।
गाँव-गाँव में विद्युत का पक्की सड़कों का जाल-सा बिछ जाएगा। पानी की निकासी के लिए नालियों का भी उचित प्रबंध कर लिया जाएगा। हर घर में दूरदर्शन, दूरभाष और घूमने के लिए कार होगी।
जहाँ तक नगरों का संबंध है, उनमें भारी औद्योगिक विकास हो जाएगा। मजदूरों की दशा सुधर जाएगी। मिलों में मजदूरों की भागीदारी होगी। उत्पादन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण हो जाएगा। कहने का तात्पर्य है कि आर्थिक असमानता दूर होगी, जिससे भारत संसार के अतिसंपन्न देशों की श्रेणी में जा खड़ा होगा ।
सभ्यता के आदि काल से भारत ने विश्व को धर्म की दृष्टि दी है।
जयशंकर प्रसादजी ने कहा है-विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम|
किंतु समय के क्रूर आघातों ने, इतिहास की निर्मम करवटों ने और अपराधीनता की बेड़ियों ने धार्मिक नेतृत्व को हमसे सदा के लिए छीनने का असफल प्रयास किया है।
सभी दिन समान नहीं होते। भारत ने शांति, व्यापार और ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विश्व के अनेक प्रगतिशील देशों से सहयोग करना आरंभ कर दिया है।
अब वह दिन दूर नहीं है जब धार्मिक क्षेत्र में भी भारत फिर से विश्व का नेतृत्व करेगा। मैं समझता हूँ कि धर्म निरपेक्ष इस देश में धर्म की परिकल्पना और धारणा में अंतर आ जाएगा। वह केवल मात्र एक व्यक्तिगत साधना न बनकर व्यक्ति में सामाजिक दायित्व, राष्ट्रीय ,भाईचारा, ईमानदारी और नैतिक गुणों की अभिवृद्धि भी करेगा ।
आज भारत का राजनीतिक क्षितिज नाना प्रकार के विरोधी रंगों से मटमैला-सा हो उठा है। मैं समझता हूँ कि मेरा यह अत्यंत मधुर सपना, हमारे अपने प्रयत्नों से पूर्ण होगा। और तब सच्चे अर्थों में प्रजा का कल्याण होगा।
मेरा यह मधुर सपना केवल संभावनाओं पर ही आधारित नहीं है वरन् देश का संपूर्ण मानस जिस ढंग से क्रियाशील है, उससे मुझे अपना सपना शीघ्र ही साकार होने वाला प्रतीत हो रहा है।
मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि मेरा सपना पूरा होते ही भारत विश्व का सर्वशक्तिमान देश होगा। ऐसी भविष्यवाणियाँ सुनने को भी मिल रही हैं। जिस प्रकार से हम अपने विकास की ओर अग्रसर हैं उससे मेरे सपने में और भी चार चाँद लग जाएँगे ।